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शनिवार, 22 जनवरी 2011

मैं समझ नहीं पा रही.......अपनी सम्पूर्णता का अर्थ....!!!


क्या याद है तुम्हें,जब हम मिले थे कभी पहली-पहली बार...
कहाँ याद होगा भला तुम्हें,तुम्हें भला इतनी फुर्सत ही कहाँ...
मैं बताती हूँ तुम्हें,तुम अवाक रह गए मुझे देखकर...
और आँखों-ही-आँखों में मेरी प्रशंसा की थी,और मैं खुश हो गयी
मैं खुश हो गयी थी इस बात पर कि,कोई इस तरह भी देखा करता है 
तुम्हें लगा मैं यही चाहती हूँ...तुम भी खुश हो गए....
अपने पहले ही देखने में दिल दे चुके थे मुझे तुम...
मगर मैंने तुम्हें तौलने में कुछ वक्त लगाया....
क्यूंकि लड़कियां अक्सर इस तरह दिल नहीं दिया करती...
और फिर कुछ मुलाकातों में ही यह तय हो गया कि तुम मेरे हो 
उन दिनों तुम मेरी हर बात का कितना ख्याल रखते थे...
हर छोटी-छोटी बात पर बिछ-बिछ जाया करते थे,सर नवा कर 
और मुझे लगता कि मुझे समझने वाला इक सच्चा हमदर्द मिल गया 
मेरे अकेलेपन को बांटने वाला एक सही इंसां मिल गया है....
और मैं भी मर मिटी थी तुमपर,तुमसे भी ज्यादा...
तुम सोचते थे मैं यही चाहती हूँ...बस यही चाहती हूँ...खुश रहना 
इसी आधे सच से गुजर रहा था हमारा प्यार...इकरंग हमारा संसार...
और तब हमने शादी कर ली अपने घर वालों के विरोध के भी बाद 
और बना बैठे हम अपने सपनों का नया इक संसार 
जहां हमारे बीच प्यार था,मनुहार था,चुहल थी,तकरार थी....
और भी बहुत कुछ था,जिसमें साथ-साथ बिताते थे हम कितना ही वक्त 
बाँटते थे अपने सारे मुद्दे...गम...बातें...चुटकुले और हंसी....
तुम्हें लगा मैं यही चाहती हूँ...तुम इतने में खुश रहते थे....
बेशक मैं भी खुश थी तुम्हारी ही तरह....क्यूंकि तुम मुझमें खुश थे
और यह सिलसिला कुछ दिन तक चला...
उन दिनों मैं बहुत मादक-कमनीय और अद्भुत आकर्षक थी तुम्हारी नज़र में 
और मेरी नज़र में दुनिया के सबसे समझदार और प्यार करने वाले पति...
एक-एक कर फिर हमारे दो-दो बच्चे हो गए....और मैं ढीली-ढाली तुम्हारी नज़र में 
मेरी कमनीय देह दो बच्चों को जन्म देकर वैसी नहीं रह पायी थी...
जैसा कि देखने की आदत पड़ी हुई थी तुम्हें बिलकुल टाईट या कसी हुई
मेरे स्तन लटक गए थे और योनि भी शायद कुछ ढीली...
तुम्हारी नज़र अब नयी बालाओं पर जा टिकती थी....
और मैं ताकती थी तुम्हें टुकुर-टुकुर,तुम्हारी भूख का आभास करती...
हालांकि बच्चों को प्यार तुम खूब करते थे और कर्तव्य सारे पूरे 
हंसती-खेलती गुजर रही थी इसी तरह गृहस्थी हमारी 
तुम अब भी कोशिश करते थे मुझे सदा खुश रखने की और...
सब कुछ पूरा किया करते थे अपनी पूरी तल्लीनता के साथ...
तुम्हें लगा मैं यही चाहती हूँ...और मैं भी खुश रहती थी तुम्हारे संग..
तुम्हारी अर्द्धांगिनी बन सदा पूर्ण परिवार का वायदा निभाती हुई....

कुछ लड़कियां भी दोस्त थी तुम्हारी,जो बेहिचक घर आती थीं...
मुझे कभी कोई शक नहीं हुआ,कि तुम वैसे नहीं हो,औरों की तरह...
मगर एक दिन जो मेरे बचपन का दोस्त आया था मुझसे मिलने हमारे घर
मैंने ताड़ लिया था तुम्हारी आँखों में कोई शक....तुम्हारा कोई डर...
और फिर उसके बाद मैनें कभी अपने पुरुष मित्र को नहीं आने दिया अपने घर 
हम हमेशा साथ चलते रहे....बच्चे हमारे बड़े होते रहे...हम सब खुश-खुश ही रहे 
तुम्हें लगा मैं यही चाहती हूँ...मैं इसी तरह जी रही थी तुम्हारे आसपास 
तुम्हारे शौक मेरे सर माथे पर...और मेरी हॉबी हमारी गृहस्थी में बाधक 
मैं भी कुछ रचना चाहती,मैं भी कुछ गढ़ना चाहती थी...और 
सोचती रहती थी सारा-सारा दिन जाने तो क्या-क्या...
मगर समझ ही नहीं आता था इस तरह बंधे-बंधे करूँ मैं आखिर क्या...
पढना-लिखना-गाना-नाचना और पेंटिंग हो गए सब हवा...
बच्चे और तुम जब घर आ जाते थे तो मैं खुश ही रहती थी सदा...
तुम्हें लगा मैं यही चाहती हूँ...तुम्हारी चाहना पूरी करते हुए मेरे 
तुमने बाहर जो भी चाहा...वो लगभग हासिल ही किया..
मैं भीतर हमारा(या सिर्फ तुम्हारा)घर संभालती रही...
और मैंने जो भी सपना देखा....मन मसोस कर रह गयी...
कई बार सोचा था कि तुमको कुछ दिल की बात कहूँ...मगर 
कुछ तुम्हारी व्यस्तताओं के,कुछ किसी भय के कारण कहने से रह गयी 
और इसी तरह मेरी सारी आकांक्षाएं एक-एक करके ढह गयी...
जो सोचा,वो कभी कह ना सकी-लिख ना सकी-रच ना सकी 
बंदिशों में गृहस्थी को संवारती हुई परिवार का घर चलाती रही 
हर चीज़ में मर्ज़ी तुम्हारी होती...यहाँ तक कि रसोई भी तुम्हारी मर्ज़ी की 
और तुम थोडा छुट दे देते तो पूरी होती बच्चों की मर्ज़ी...
मैंने कभी नहीं जाना सच कि आखिर मेरी मर्ज़ी है क्या...
और कभी मर्ज़ी ने खोले पंख तो भयभीत होकर सिमट गयी मैं खुद 
गृहस्थी को कभी आंच ना आये मेरे कारण,मैंने मर्ज़ी समेट ली 
सबकी मर्ज़ी को जीते हुए अपने बच्चों की शादी भी कर दी 
अब भी थोड़ी तुम्हारी मर्ज़ी चलती है,फिर बच्चों की,फिर बच्चे के बच्चों की 
सबकी इच्छाओं में मैं सदा से अपना जीवन बून रहीं हूँ 
सबकी सब तरह की हवस को पूरा करते मैं खुद में खुद को ढूंढ रही हूँ
सबको लगता है,मैं यही चाहती हूँ...मैं नारी हूँ....पुरुष की एक सहगामिनी....और 
मैं समझ नहीं पा रही अब किसी के सम्पूर्ण साथ होकर भी अपनी सम्पूर्णता का अर्थ....!!!   

7 टिप्‍पणियां:

डॉ. नागेश पांडेय संजय ने कहा…

अत्यंत सुन्दर प्रस्तुति ... बधाई . मेरे ब्लाग पर आपका स्वागत है - http://abhinavanugrah.blogspot.com

विशाल ने कहा…

राजीवजी,औरत के अंतर्मन को दर्शाती हुई बढ़िया प्रस्तुति है.एक सुझाव है.पांचवें पैराग्राफ की अंतिम लाइन हटा दें तो और अच्छा लगेगा.

Sunil Kumar ने कहा…

औरत के अंतर्मन को दर्शाती प्रस्तुति , बधाई ...

SATYA ने कहा…

बहुत सुन्‍दर.

विभा रानी श्रीवास्तव ने कहा…

मंगलवार 19/03/2013 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं .... !!
आपके सुझावों का स्वागत है .... !!
धन्यवाद .... !!

Unknown ने कहा…

लेकिन मैं समझ नहीं पा रहा कि इसे अगर गद्य में लिखा गया होता तो क्या बुरा होता?

कालीपद "प्रसाद" ने कहा…


अत्यंत सुन्दर प्रस्तुति
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