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गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010

मैं तो यहीं हूँ ना.....तुम कहाँ हो.....!!

मैं तो यहीं हूँ ना.....तुम कहाँ हो.....!!





इक
 दर्द है दिल में किससे कहूँ.....
कब लक यूँ ही मैं मरता रहूँ !!
सोच रहा हूँ कि अब मैं क्या करूँ
कुछ सोचता हुआ बस बैठा रहूँ !!
कुछ बातें हैं जो चुभती रहती हैं
रंगों के इस मौसम में क्या कहूँ !!
हवा में इक खामोशी-सी कैसी है
इस शोर में मैं किसे क्या कहूँ !!
मुझसे लिपटी हुई है सारी खुदाई
तू चाहे "गाफिलतो कुछ कहूँ !!
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दूंढ़ रहा हूँ अपनी राधा,कहाँ हैं तू...
मुझको बुला ले ना वहाँ,जहाँ है तू !!
मैं किसकी तन्हाई में पागल हुआ हूँ
देखता हूँ जिधर भी मैं,वहाँ है तू !!
हाय रब्बा मुझको तू नज़र ना आए
जर्रे-जर्रे में तो है,पर कहाँ है तू !!
मैं जिसकी धून में खोया रहता हूँ
मुझमें गोया तू ही है,निहां है तू !!
"गाफिल"काहे गुमसुम-सा रहता है
मैं तुझमें ही हूँ,मुझमें ही छुपा है तू !!
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चुपके-चुपके कुछ कहता है...
कौन है मुझसे छुपा रहता है !!
आग तो सब ख़ाक कर देती है
और धुंआ ही बस रह जाता है !!
बनता हुआ-सा सब दीखता है
बन-बन कर मिट जाता है !!
राम कहने से क्या डरता है
आख़िर में राम ही रह जाता है !!
ख़ुद के भीतर समाया हुआ जो
इतना हल्ला वो क्यूँ करता है !!
तन-मन-धन की बात ना कर
इनसे क्या तू चिपका रहता है !! 
कुछ और ही मैं कहना चाहता हूँ
"गाफिल" क्यूँ बीच में  जाता है !!
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कुछ शब्द मेहमान हैं इस महीने में
और डूबते जाते हैं वो मेरे पसीने में !!
किसी ने कहा आगे सब ठीक होगा
और  गए कुछ गम इस महीने में !!
गम को गम कहना ज्यादती लगती है
चलो इसे खुशी कहा जाए इस महीने में !!
 कुछ रंगीन बना देते हैं इन दिनों को
गिनती के तो दिन होते होते हैं महीने में !!
आज तुझको डुबाकर ही दम लूँगा यारब
मैं ख़ुद हूँ ही नहीं"गाफिल"मेरे सफीने में !!

शनिवार, 23 अक्तूबर 2010

......किससे जाकर क्या कहूँ.......!!

......किससे जाकर क्या कहूँ ,
इससे तो अच्छा है चुप ही रहूँ 
कौन समझेगा मेरे दिल की बात
कितनी रातें सोयी नहीं मेरी आंख
कौन बो रहा है मुझमें क्या-क्या कुछ 
कौन कहता है मुझसे क्या-क्या कुछ
जो गुनता हुं मैं,कह नहीं सकता
और कहे बिना भी रह नहीं सकता
कौन सुनेगा मेरे दिल की बात
क्या समझेगा वो मेरे दिल की बात 
.........किससे जाकर क्या कहूँ ,
इससे तो अच्छा है चुप ही रहूँ 
जहर की माफ़िक जो भी मिलता है
प्रसाद की तरह उसे पी जाता हूँ 
मुझमें सब कुछ गुम हो जाता है
और मैं सब में गुम हो जाता हूँ 
मगर खुद को किस तरह रखूं
कि मेरा खुद अपने आपे में रहे
........किससे जाकर क्या कहूँ ,
इससे तो अच्छा है चुप ही रहूँ 
कितना कुछ देखता रहता हूँ 
फ़िर भी कितना बेबस रहता हूँ 
गूंगा-बहरा-अंधा और बेबस होकर
पागलों की तरह जीता रहता हूँ 
मैं फ़िर क्यूं आया हूँ धरती पर
गरचे कुछ नहीं करना है यां पर
कितना कुछ तो कहता रहता हूँ 
क्या-क्या अंट-शंट बकता रहता हूँ 
मगर इस कहने से होगा क्या
हरदम बकते रहने से होगा क्या
.........किससे जाकर क्या कहूँ ,
इससे तो अच्छा है चुप ही रहूँ 
इक दिन यूं ही मर जाउंगा
खुद को बौना कर जाउंगा
गुमसुम जीने से भी होगा क्या
लिखने-पढ्ने से भी होगा क्या
मेरे आसपास गर सब कुछ वैसा ही है
आदमी बिल्कुल भी इन्सां जैसा नहीं है
किन-किन बातों पर ये लड्ता रहता है
उलटा-सीधा क्या-क्या करता रहता है
और फिर भी खुद को क्या समझता है
मैं इन बातों पर अपना सर क्यों फोडूं
.........किससे जाकर क्या कहूँ 
इससे तो अच्छा है चुप ही रहूँ .......!!

गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010

ए रात ज़रा ठहर जा ना............

ए रात ज़रा ठहर जा ना 
मैं थोडा सा तुझमें से गुजर तो लूं....
मेरी आगोश में ज़रा देर ठहर तो जा 
इक ज़रा तेरा एक बोसा तो ले लूं..... 
तुझे थाम लूं और कहूँ 
कि प्यारी है सच तू मुझे बहुत....
तेरा अन्धेरा भर रहा है मुझमें 
मैं और गहरा हो रहा हूँ शायद.....
एय रात ज़रा ठहर जा ना प्लीज़ 
मैंने अपने-आप को आज देखना है 
पूरा-का-पूरा समूचा,और 
रौशनी खुद को देखने ही नहीं मुझे....
मैं पहचान भी नहीं पा रहा हूँ एय रात 
कि मेरा चेहरा कौन सा है,कौन हूँ मैं....
एय रात....इस पूरी रात को 
तू इसी तरह गुजर जाने दे....
कल कोई और सवेरा होगा 
जहां तू होगी ही नहीं 
और मैं.....
मैं तो कभी था ही नहीं....!!!!