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सोमवार, 17 अक्तूबर 2011

कैसे समझाऊं उन लोगों को मैं कि..........

कैसे समझाऊं उन लोगों को मैं कि
जो धन वो चोरी-छुपे ले जा रहें हैं देश से बाहर 
या फिर अपनी ही कहीं-किसी तिजोरी में
उससे संवर सकती है उनके के हज़ारों भाइयों की ज़िंदगियाँ !
और खुश हो सकते हैं वो पेट भर अन्न या तन पर कपड़े पाकर 
कैसे समझाऊं उन लोगों को मैं कि
जिस धन के पीछे कर रहें वो इत्ते सारे कुकर्म 
अगर ना करें वो तो बदल सकती है देश की तकदीर !
कैसे समझाऊं उन लोगों को मैं कि
जो सुन्दर व्यवस्था वो अपने लिए चाहते हैं और बना रहे हैं 
उसी के कारण हो रही है उसी व्यवस्था में एक अराजक सडांध ! 
कैसे समझाऊं उन लोगों को मैं कि
जिस धन को सही तरीके से बाँट देने पर 
बेहतर तरीके से हो सकता है सामाजिक समन्वय !
उसे सिर्फ अपने लिए बचा लेने के कारण ही 
बढ़ रहा है असंतुलन और वर्गों में एक अंतहीन दुश्मनी ! 
कैसे समझाऊं उन लोगों को मैं कि
अगर रिश्तों पर दे दी जाती है धन को ज्यादा तरजीह 
तो बाहरी चकाचौंध तो बेशक आ सकती है जीवन में 
मगर रिश्तों का खोखलापन जीवन को कर देता है उतना ही निरर्थक !
कैसे समझाऊं उन लोगों को मैं कि
अगर धन के पीछे ना भागकर उसे परमार्थ के काम में लगा दो तो 
दुनिया बन सकती है सचमुच अदभुत रूप से संपन्न और सुन्दर !
जिसकी कि कामना करते रहते हैं हम सब हमेशा ही सदा से !
कैसे समझाऊं उन लोगों को मैं कि अगर सच में 
बेतहाशा धन कमाने वाले अगर अपना आचरण आईने में देख-भर लें 
तो शायद समझ आ जाए उन्हें वह सब कुछ 
जिसे समझने के लिए वो जाते हैं तरह-तरह के साधू-संतों के पास अक्सर ! 
कैसे समझाऊं उन लोगों को मैं कि
जिस व्यवस्था को कमा-खाकर भी वो कोसते हैं उसकी कमियों के लिए 
उस घुन को लगाने वाले सबसे बड़े जिम्मेवार दरअसल वो ही तो हैं !
कैसे समझाऊं उन लोगों को मैं 
क्यूंकि ऐसा करने वाले इतने थेथर-अहंकारी-धूर्त और मक्कार बन चुके हैं 
कि स्कूल-कॉलेज में पढ़-कर साधन-संपन्न बनाने के बाद भी 
उन्हें नहीं पता शब्दकोष के भीतर के अच्छे-अच्छे शब्दों का अर्थ 
क्योंकि दरअसल इन शब्दों के अर्थों को भूल-भुला कर ही तो 
वो बने जा रहे हैं इतने ठसकवान और ऐब-पूर्ण 
कि उन्हें अपने कारखानों या अपनी गाडी के नीचे आकर 
मरने वालों का चेहरा तक नहीं दिखाई देता !
और इस तरह जहां हज़ारों लोग भूखे मर जा रहे हैं 
वो खाए जा रहे हैं एक पूरे-का-पूरा देश 
और हज़म कर ली है उन्होंने एक समूची-की-समूची व्यवस्था.....!! 

गुरुवार, 13 अक्तूबर 2011

ये ख़ास आदमी जो देश को रोज लहू में डुबोता है




ये ख़ास आदमी जो देश को रोज लहू में डुबोता है
कहते हैं फिर भी ख़ास आदमी को स्ट्रेस बहुत होता है!
बड़ी मुश्किलों से जो हाथ हर एक खेत जोतता है 
सोना बोकर भी इस आदमी का हाथ तंग ही होता है!
क्या ऐसे ही लोगों से होगा वतन का भाल ऊँचा यारों 
किसी के हाथ में लाठी है,किसी के हाथ में लोटा है!


पता नहीं कौन-सी मिट्टी का बना हुआ है आम आदमी 
देश चढ़ रहा है तरक्की की सीढ़ियाँ और ये मनहूस रोता है!
इस ख़ास आदमी की ताक़त और गरूर को तो देखिए जनाब 
जिसे काट डाला है अभी इसने,उसी के लहू में हाथ धोता है!
अब कैसे बताऊं तुम्हें कि मैं उसका कौन होता हूँ मेरे दोस्त
बस जब-जब तुम उसे मारते हो तब-तब दर्द मुझे होता है!


तुम्हारे लिए ये हरफ़ ग़ज़ल ना बन सकी हो तो ना ही सही
इस ग़ज़ल का मगर हर इक हरफ़ आम आदमी का दर्द रोता है!
ये सिसकियों की आवाज़ कहाँ से आ रही है ओ खुदारा मेरे
ये कौन है जो कब्र में भी आज तक खून के आँसू रोता है!!   

बुधवार, 5 अक्तूबर 2011

is viyadashmi par........!!

शुभकामनाएं हम सभी को यदि 
अपने भीतर का रावण मिटा सकें
प्रेम-प्यार से वंचित इस धरती को 
फिर से हम सब जिला सकें !!
हममे से जो भी है समृद्द 
उसको कर्ण तो बनना होगा 
हर वंचित के सर के ऊपर 
इक छत्त बनंकर तनना होगा 
वरना इस समृद्धि पर धिक्कार है 
जिसके पीछे चारों तरफ इक हाहाकार है 
कब समझेंगे यह सब ज्यादा कमाने वाले 
अपने पेट से ज्यादा दूसरों का खाने वाले 
आग जली है जिनके भीतर और खाऊं-और खाऊं 
धरती का सारा धन लेकर मैं मर जाऊं 
सब जानते और कहते भी हैं कि खाली हाथ जायेंगे 
पता नहीं ये कब तक सबको और खुद को भरमायेंगे
इस रावण का क्या करें हम सब 
जो हम सब के भीतर बैठा है....
तरह-तरह के तर्कों के संग हममें वो जीता है 
कितना विवश और लाचार हैं हम इस रावण के आगे 
आदमी के लालच से डरकर उसके सारे गुण भागे 
रावण के पुतले को जलाकर हम भला क्या कर लेंगे 
अपनी इंसानियत को मार कर हम धरती को क्या देंगे 
आओ-आओ-आओ-आओ आज विजयादशमी मनाओ 
उससे पहले मगर इस रावण को तुम मार भगाओ 
तब लगेगा कि पहली बार दुर्गा पूजा आई.....
मन के भीतर इस दुर्गा की पवित्र जोत है छायी....!!