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रविवार, 13 फ़रवरी 2011

एक बात कहूँ मैं तुमसे......यदि तुम सचमुच तहे-दिल से सुन सको...??

एक बात कहूँ मैं तुमसे......??
अभी-अभी लाए हो ना तुम पूरे सौ रुपये की किताबें...
और कल ही डांट दिया था मुझे पच्चीस रुपयों की टॉफियों के लिए....
जो बच्चों के लिए लायी थी मैं,और तुमने कहा कि देखकर खर्च किया करो !!
मन मसोस कर रह गयी थी मैं,मगर कुछ कह ना पायी,क्योंकि 
कमाकर लाने वाले तो तुम हो,कैसे कमाया जाता है,यह हम क्या जाने 
अक्सर यह जताते हो हमपर तुम,और हम सचमुच शर्मिन्दा हो जाते हैं उस वक्त 
कमाकर लाना सचमुच आसान तो नहीं है बहुत,मगर बार-बार यह जतलाना तुम्हारा
हमें बहुत-बहुत-बहुत पीड़ित कर डालता है,यह शायद तुम कभी नहीं जान पाते....
क्योंकि उस वक्त हमारे तकरीबन भयभीत मुख तुम्हें ताकत प्रदान करते हैं....
और तब तुम और-और-और हावी हो जाते हो हमपर.....तुम ऊँचे...हम बौने....!!
लेकिन एक बात कहूँ मैं तुमसे...यदि तुम सचमुच तहे-दिल से सुन सको...??
अक्सर घर खर्च मांगती हुईं हम स्त्रियाँ अपने पतियों से "घूरी"जाती हैं....
या लगभग लताड़ ही जाती जब अपने बच्चों या सास-ससुर के सन्मुख....
तब ऐसा लगता है कि यह पैसा हम घर खर्च के लिए नहीं बल्कि....
अपनी ऐश-मौज-मस्ती वगैरह के लिए ले रही होंओं....
और मज़ा तो यह कि हम इसका हिसाब बताने लगें तो कहोगे 
कि तुमसे हिसाब भला कौन मांग रहा है...कि नौटंकी कर रही हो....
और हिसाब ना देन...तो ताने मिलते हैं...कि कोई हिसाब ही नहीं है हमारा....!!
हमारी इन तकलीफों को कभी किसी के द्वारा समझा ही नहीं गया है...
मगर हम किस तरह की कुंठा में जी रही हैं,यह बता भी नहीं सकती पति से...
यह व्यवस्था तो हम सबने मिलकर ही बनायी है ना...
कि हम घर में काम करें और तुम सब कमाकर लाओ....!!
तुम घर चलाने का इंतजाम करो और हम घर चलायें....!!
फिर दिक्कत किस बात की है...क्यूँ भड़कते तो तुम बात-बात पर...
और ख़ास कर खर्च की बात पर....
तुमसे पैसे लेकर क्या हम किसी बैंक के लॉकर में रख डालती हैं,अपने निजी खाते में...
या कि तुम्हारे या अपने बच्चों का कोई इंतजाम करती हैं....!!
सच तो यह है कि अपने बच्चो और तुम्हारी खुशियों के सिवा 
हमें कुछ ख्याल तक भी नहीं आता...और तुम्हारे मर्मान्तक प्रश्न...
हमें कहीं बहुत-बहुत-बहुत भीतर तक घायल कर देते हैं अक्सर....!!
काश तुम्हें कभी कोई यह बता सके कि हम भी तुम्हारी तरह ही एक (जीवित)जीव हैं 
और तुमसे एक ऐसा अपनापन चाहिए होता हैं हमें....
कि हम तुममें छिपकर कोई सपना बुन सकें....
और यदि कोई बात बुरी लगे तो तुमसे लिपटकर जार-जार रो सकें...
काश तुम कभी किसी तरह से यह जान सको कि.....
तुम पति के बजाय एक दोस्त बन सको हमारे....
तो हमारी गलतियां हमारे लिए कभी पहाड़ ना बन सकें....
और हम जी सकें एक-दूसरे के भीतर रमकर....
और बच्चों को दिखा सकें प्रेम के तरह-तरह के रूप 
हम सब बन सकें हम सबके बीच आश्चर्य का प्रतिरूप...!!  


http://baatpuraanihai.blogspot.com/ 












 

गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011

मन करता है मैं मर जाउं..........!!!!




मन करता है मैं मर जाउं...
इन सब झमेलों से तर जाउं
मन करने से क्या होगा
होगा वही जो भी होगा
मन तो बडा सोचा करता है
रत्ती-भर को ताड सा कर देता है
आदमी तो हरदम वैसा-का-वैसा है
इक-दूसरे को काटता रहता है
हर आदमी का अहंकार है गहरा
और उसमें बुद्धि का है पहरा
बुद्धि हरदम हिसाब करती रहती है
फिर भी पाप और पुण्य नहीं समझती है
ईश्वर-अल्ला-गाड बनाये हैं इसने
फ़िर भी कुछ समझा नहीं है इसने
तरह-तरह की बातें करता रहता है
खुद को खुद ही काटा करता है(तर्क से)
पहले नियम बनाता है आदम
फिर उनको खुद ही काटता है आदम
पता नहीं चाहता क्या है आदम
अपनी तो ऐश भी जरुरत लगती है
दूसरे की भूख भी फालतू लगती है
हर किसी के लिए हैं नये नियम
मगर उनमें कायदा कुछ भी नहीं है
इसलिये कुछ को भले कुछ मिल जाये
इसमें सबका फायदा कुछ भी नहीं है
तेरा-मेरा उसका-इसका
इतना पढ-लिखकर भी 
आदम नहीं हो पाया है किसी का
अपने बाल-बच्चों के सिवा
इसको दिखता कुछ भी नहीं है
ऐसी पढाई का फायदा क्या है
समाज में रहने का मतलब क्या है
एक-दूसरे को लूटॊ और पीटो 
या कि फिर मारो और काटो
और फिर कहो कि हम सबसे अच्छे हैं
इस कहने का आधार भी क्या है
आदमी के आदमी होने का आधार भी क्या है
अगर इसी तरह सब कुछ चलता रहना है
मन करता है कि मर जाउं....
उफ़ मरकर भी किधर जाउं.....!!!!!