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मंगलवार, 27 मार्च 2012

दिनांक २७-०३-२०१२ रात ग्यारह से बारह के बीच....

[१]
समय जो चलता जाता है 
किसी को समझ ना आता है 
वो अपनी ही करता जाता है 
आदमी को नहीं यह भाता है !!
समय से आगे चलने को 
भागते-फिरते रहने को 
ये कितना व्याकुल है आदमी !!
कभी इधर-कभी उधर 
कभी यहाँ-कभी वहाँ 
अजीब सी फितरत है आदमी !!
तरह-तरह के शौक हैं
और कई तरह के इनाम भी
तरह-तरह के चोंचले
कई तरह से बेईमान भी
अच्छाई की कामना करता हुआ
जो खुद में ही है बेईमान भी
जो दूसरों को लताड़ता
तरह-तरह से दहाड़ता...
ये किस तलाश में है आदमी !!
ये कौन से मुकाम की खातिर
हर वक्त ही लड़ रहा है आदमी !!
समय बड़ा बलवान है..
पर आदमी को नहीं पहचान है !!
तरह-तरह से भेद से
सबको-सबसे है बांटता...
भाई-भाई का रट्टा लगाता
और एक दुसरे को काटता....
खुद को बड़ा ही सभ्य समझता
पशुओं से गया-गुजरा रहा
ये कौन सी नस्ल का जीव है....
ये गया-बीता हुआ आदमी...
इस आदमी को बुहार दो...
ओ धरती माँ..
अब तुम्हीं से है ये प्रार्थना
इस आदमी को मार दो....
इस आदमी को मार दो....
इस आदमी को मार दो....!!!

[२]
बहुत उदास हूँ...
मैं खुद के आस-पास हूँ !
कभी जो ना हो पूरी
मैं इक ऐसी प्यास हूँ !
बहुत उदास हूँ...
बहुत सी बातें कहनी थीं
मगर मैं चुप-चुप ही रहा
सभी के साथ चलते-चलते भी
मैं खुद में ही सिमटा रहा
किसी से जाकर क्या कहूँ
किसी को पाकर क्या कहूँ
किसी से आकर क्या कहूँ
बहुत उदास हूँ...
समय अभी वो आया नहीं
कुछ मुख़्तसर सी बातें हैं
जिन्हें सबसे कहना है
जिन्हें सबको समझना है
और जिनपे सबको चलना है
कि कह ना पाए कोई कभी
कि बहुत उदास हूँ....!!

[३]
अजीब सी इक खलबली होती रहती है इस दिल में
इक चुभन सी होती-होती रहती है इस दिल में !
किसी-ना-किसी-सी बात पर गुमसुम हो जाता है कहीं
अभी यहीं था अब कहाँ चला जाता है ये कहीं
अच्छाईयों के लड़ता हुआ खुद ही बुरा बन जाता है ये
अच्छे की तलाश में अच्छा-अच्छा-सा कुछ करते हुए
ना जाने कितनों की नज़र में बेवजह ही चढ़ जाता है ये !
करना तो चाहता है बहुत ही कुछ
कर नहीं पाता है ये कभी भी कुछ
बस इसी तरह के माहौल में
उठा-पटक और मोल-तोल में
बसर हो रही है सभी की जिंदगी
तरह-तरह की बेईमानिया करता हुआ
करता है ये कैसी-कैसी बंदगी....
नूरे-खुदा को कुफ्र के गहरे अंधेरों में ठेल कर
करता है बात रौशनी की,
अजीब सा पागल है आदमी
हर वक्त ही काम करता है
दूसरों को सता कर मारने के
और खुद पे बन आ जाए जब....
करता है ना जाने कितने शिकवे-गिले
जब तक इसी तरह की फितरत बनी रहेगी
दिल में खलिश मेरे बनी ही रहेगी
आदमी अगर खुद को ज़रा भी बदल सकता नहीं
तो अपनी फितरत को मैं भी मिटा तो सकता नहीं
अजीब सी इक खलबली होती रहती है इस दिल में
इक चुभन सी होती-होती रहती है इस दिल में !